किसी ने हमसे कहा था की रांझणा मूवी मत देखना, पचा नही पाओगे ठाकुर! पर क्या करते जब हमीं को चूतियापा सूझा था, एक तो लोग हम पर ही फिल्म का डॉयलॉग मार के हम ही को फिल्म न देखने को बोल रहे थे, जो की मुश्किल ही नही नामुमकिन भी था साहब। खैर फिल्म पर लौटते हैं वो मुरारी क्या बोला था फिल्म में की प्यार न हुआ तुम्हारा यू .पी .एस .सी . का एग्जाम हो गया है, दस साल से क्लीयर ही नही हो रहा। तो अब हम अपनी सुनाते है, प्यार के बारे में नही अपने बारे मे…… की आज दस साल हो गये बोले हुए फिर भी एग्जाम क्लीयर ही न हो पाया।
ये दस साल तब शुरू हुआ था जब 2003 में पापा की चाहत के बावजूद लॉ ऑनर्स की काउंसिलिंग छोड़ हमने B.A. में एडमिशन ले लिया जिसे लोग सिंपल ग्रेजुएशन बोलते हैं। हलांकि ये किस्मत का ही खेल था की इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेने के बावजूद भी ग्रेजुएट हम लखनऊ यूनिवर्सिटी से ही हो पाये। अब जबकि मै छात्र नेताओ के विश्वविद्यालय का था, तो उनकी रंगत तो आनी तय ही थी। जिसकी पूर्ण झलक तब दिखी जब वहां किसी ने एक बार हमसे पूछा की बड़े होकर क्या बनोगे? वक़्त भी ऐसा था की हम कैंटीन में हॉफ पैंट में ही खड़े चाय पी रहे थे, उनका ये सवाल सुन के मन तो किया पूरी चाय उनके अन्दर ही धकेल दूँ लेकिन खुद को काबू में कर बड़ी मासूमियत से जवाब दिए की अब कक्षा पहन के खड़े हैं तो इसका ये मतलब नही की हम अभी बढ़े नही, अब चूँकि हम बड़े हो चुके हैं तो आगे की भी पटकथा सुनाते हैं,"सरकार चलाना है हमे।"
खैर चलाना है ये तो पक्का है लेकिन कैसे और उसका रूप क्या होगा, उसे सोचना बाकी था, एक तरीका जो पिता जी की चाहत भी थी न्यायपालिका के रूप में उसे तो पहले ही नाता तोड़ चुके थे तो अब दूसरी राह पकड़ ली। जिसे लोग विधायिका या राजनीति बोलते है, लेकिन हम उसे नेतागिरी से ज्यादा न समझ पाये। शुरुआत अच्छी रही और जल्दी ही जिन्दाबाद -मुर्दाबाद भी होने लगा। लेकिन साहब इसमे 5 साल लग गए और इस दौरान हमने ऊचाईयाँ भी चढ़ी, जिंदगी के साथ खूब कबड्डी खेली और जिंदगी को भी जब मौका मिला उसने भी हमसे खूब कत्थक कराया। खैर अब 2007-08 का समय आ गया था और हम पोस्ट ग्रेजुएट होने वाले थे इसी दौरान स्टूडेंट पॉलिटिक्स पर सरकार की नई नीति ने हमे वहाँ से भी दूर कर दिया। तो अब मेरे पास दो ही रास्ते बचे थे की इसी जिंदगी के जिंदाबाद-मुर्दाबाद में अपना सिर पटकूं या कोई और राह पकड़ कर जल्दी अपनी मंजिल पर पहुंचू क्योकि उस समय भी राजनीति में जिसका राज था उसी की नीति भी थी। तो अपना राज बनाने की कठिन नीति पर चलने के बजाये हमने आसान राह पकड़ी।
चूँकि मुझे हमेशा से ऐसे भाइयों का साथ था जिनके कारण मै पढाई से भागने के बावजूद भी उससे दूर न हो पाया था। तो मै उन्ही के साथ सापेक्षत: आसान काम IAS बनने में जुट गया और लखनऊ से दिल्ली वाया इलाहबाद पहुँच कर जो सफ़र शुरू किया, उसकी शुरुआत संतोषजनक रही। लेकिन जल्द ही वास्तविकता से परिचय हुआ जब 2010 में दिए अपने पहले एटेम्पट में असफलता से रूबरू होना पड़ा और जब उससे उबर कर 2011 में मजबूती से जवाब देना चाहा तो किस्मत का खेल देखिये की एग्जाम से एक रात पहले हम हॉस्पिटल पहुँच चुके थे और सुबह लाख कोशिश और हिम्मत करने के बावजूद डॉक्टर यही बोले की छोड़ दो बेटा तुमसे न हो पायेगा।
अब चूँकि किस्मत का खेल हम पर हावी हो चुका था फिर भी हम हार मानाने वाले कहा थे, जब यही ठान चुके थे की सरकार ही चलाना है। तो एक साल फिर से इंतजार करने के बजाये हम पहुँच गये भोपाल, जर्नलिस्ट बनने। सोचा था ज्यादा समय IAS बनने में देंगे और जो समय बचेगा उसमे जर्नलिस्ट बन लेंगे। लेकिन कुछ ही समय में हमे ये समझ आ गया की ठाकुर सिर्फ कलम चला लेने के कौशल से ही जर्नलिस्ट नही बन सकते, उसके लिए कुछ और भी करना पड़ेगा। अब मेरे पास उस कुछ और के लिए तो समय था नही तो भय्या अपने लौटे आत्मविश्वास के साथ हम फिर सापेक्षतः उसी आसान काम को पूरा करने के लिए दिल्ली लौट आये जो की था पढाई करना। अब ये आसान काम अगर ईमानदारी से हो गया तो वो ये जरुर कहेंगे जिन्होंने 10 साल पहले गलती से कभी मेरी पढाई की शैली देख ये कयास लगा कर कहा था की ये लड़का जरुर IAS बनेगा, लेकिन क्लीयर अब कर पाया है…