अभी हाल ही में मैंने एक फ़िल्म 'गुलाल' देखी है। लेकिन मै इस फ़िल्म को अच्छे से समझ नही पाया हूँ। शायद इसीलिए मै अब तक इस फ़िल्म को कई बार देख चुका हूँ। लेकिन हर बार इस फ़िल्म के छोटे पर बहुत मारक संवाद ने इसके बारे में मेरे विचार को लगातार बदला है और मै इस द्वंद में रहा हूँ की ये फ़िल्म कोई संदेश देती है या फ़िर इसका नकारात्मक अंत किसी यर्थात के दर्शन कराती है। ये द्वंद भी मेरे इस फ़िल्म को कई बार देखने के फलस्वरूप ही उत्पन्न हुआ है क्योकि फ़िल्म देखने में हर बार मेरे साथी अलग-अलग थे और उनके विचार और किरदार की पसंद भी भिन्न थे। अधिकतर लोगो को मैंने अपने परिवेश के मुताबिक किरदारों को पसंद करते देखा है। लेकिन एक दिन जब हम एक समूह में बैठे इस विषय पर चर्चा कर रहे थे तभी हमारे बीच बैठे एक शख्स जो की एक जाति विशेष के घोर विरोधी लग रहे थे ने अपनी पसंद फ़िल्म के एक किरदार करन (आदित्य श्रीवास्तव) को बताया। तो हम अचम्भित भी थे और हँस भी रहे थे। खैर हमारी हँसी ने ही उनको अपने उत्तेजना भरे बयान पर शर्मिंदा कर दिया और वो हमारे जवाब और कटाक्ष से भी बच गए। इस फ़िल्म के समस्त पात्रो ने अपने-अपने अभिनय को तो बखूबी निभाया है लेकिन इस फ़िल्म में मौजूद इसके संगीत निर्देशक एवम् अभिनयकर्ता पियूष मिश्रा ने अपने अभिनय एवं व्यंग दोनों से ही सबका ध्यान आकर्षित किया है। इनके द्वारा वर्तमान के पथ से भटके नौजवानों पर किए गए व्यंग पर यर्थात के दर्शन तो होते ही है साथ ही हंशी भी आती है।
"ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्ताँ
आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये
अपनी आज़ादी तो भइया लौंडिया के तिल में है
आज के जलसों में बिस्मिल एक गूँगा गा रहा
आज के जलसों में बिस्मिल एक गूँगा गा रहा
और बहरों का वो रेला नाचता महफ़िल में है
हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्ढी भी सिलती इंगलिसों की मिल में है!!"
यहाँ हमें कुछ और भी देखने को मिला वो है विश्वास घातियों के अनेक रूप और सच्चे साथियों के कुछ विशेष रूप। दुनिया जीतने के अपने ख्वाब को साकार करने के लिए ग़लत मार्ग के चुनाव का फल तो यहाँ ग़लत दिखाया गया है। लेकिन उसके अंत में वर्तमान के मुताबिक ही बुराई की जीत भी दिखायी गई है। जो इस बात को भी सत्य करती है की वो उससे ईमानदार इसलिए है क्योकि उसे चोरी के मौके कम मिले हैं। शायद इसीलिए फ़िल्म के अंत में प्यासा फ़िल्म के पुराने गाने को नये रूप से प्रस्तुत कर यर्थात का क्षणिक अनुभव कराया गया है।
"ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है..."
आज तो चड्ढी भी सिलती इंगलिसों की मिल में है!!"
यहाँ हमें कुछ और भी देखने को मिला वो है विश्वास घातियों के अनेक रूप और सच्चे साथियों के कुछ विशेष रूप। दुनिया जीतने के अपने ख्वाब को साकार करने के लिए ग़लत मार्ग के चुनाव का फल तो यहाँ ग़लत दिखाया गया है। लेकिन उसके अंत में वर्तमान के मुताबिक ही बुराई की जीत भी दिखायी गई है। जो इस बात को भी सत्य करती है की वो उससे ईमानदार इसलिए है क्योकि उसे चोरी के मौके कम मिले हैं। शायद इसीलिए फ़िल्म के अंत में प्यासा फ़िल्म के पुराने गाने को नये रूप से प्रस्तुत कर यर्थात का क्षणिक अनुभव कराया गया है।
"ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है..."
2 टिप्पणियां:
ई ही आजकल मौज़ में हैं.
aapki samiksha pasand aayi
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