स्वघोषित, आम आदमी पार्टी के समर्थक और आप के सहयोगी के रूप के रूप में जब स्वयं के परिचय में धर्म/जाति को हिन्दू, क्षत्रिय ........ से बदलकर एक आम आदमी किया तो उसके पीछे जो तर्क और शर्त रही, उसे इक नज्म में पिरोने की कोशिश की। जो अब आप सब के सामने है...
मन्दिर का हूँ न मस्जिद का हूँ
न हूँ राम-रहीम का,
इस वक़्त, भागती दुनिया में
मै हूँ एक गरीब का,
अमीर भी हूँ, गरीब भी हूँ,
हूँ मै ख़ुश नसीब भी,
हर वक़्त तौलती दुनिया में
कीमत है सिर्फ जमीर का।
खोया भी हूँ, पाया भी हूँ,
लुटता चला आया भी हूँ,
इक भेद देखना होगा
रिश्ता और जागीर का।
संगी भी हूँ, साथी भी हूँ,
हूँ मै हमसफ़र भी,
इस साथ खोजती दुनिया में
मै हूँ भारत देश का।
लड़ना भी है, पाना भी है,
है खुद के लिये छीनना भी,
ये लक्ष्य रखेगें तभी
जब होगा मानव जात का।
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