सोमवार, 10 दिसंबर 2012

हम फिर अपना अहसास सुनाते हैं...

कुछ आईने वक्त पर दरक जातें हैं, 
एक नज्म की आड़ में 
हम फिर अपना अहसास सुनाते हैं...

तनहाई के आगोश का 
साथ है इस वक्त भी, 
फिर भी माखौल उड़ा 
मेरे ही जज्बात का... 

न इकरार था, न इजहार था 
और न ही था इंतजार हमें, 
फिर भी  लोग मशगूल रहे 
चर्चा में मेरे साथ का.. 

सच कहूँ तो है मुझे 
अफसोस अब भी इस बात से, 
क़त्ल करना ही था अगर 
क्या ज़रूरत है राज का..

कुछ वफ़ा भी थी मगर 
उन चंद लमहों के साथ में, 
की यकीं होता है अब भी 
मौसम की  उस बात का...

2 टिप्‍पणियां:

कौशलेन्द्र ने कहा…

बहुत उम्दा...

SHASHIKALA ने कहा…

bahut dinko k bad kuch aacha pada hai
thanks
sir g