बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

"फिर कैसे वो खुशी दे गई..."

रात है सुहानी सी
दिन भी तो था हसीन
फिर क्यों लगता है
ये मौसम अन्जाना सा,

रास्ते पर है वीरानीं
महफ़िल भी तो है सूनी सी
फिर क्यों छाई है
हम पर मदहोशी सी,

गुम न है कोई
बस है इक पुकार की दूरी पर
फिर क्यों न निकलतीं है
हमसे इक आवाज कोई,

कुछ न चाहा था हमने
न कुछ भी महसूस किया
फिर कैसे वो खुशी दे गई
जैसे थी पहचान कोई !!

2 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

अच्छी पोस्ट लिखी है।बधाई।

roushan ने कहा…

सुंदर कविता है ये वर्ड वेरिफिकेशन हटा दो भाई लोगों को दिक्कत होती है