शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

"मीत बना मै घूम रहा हूँ..."

अपनी पी.जी. पूरी करके पढाई के कारण लखनऊ छोड़ने के बाद एक दिन मधुशाला पढ़ते हुए, तनहाइयों में बच्चन जी की साकी, प्याला, हाला और मधुशाला को अपनी भावनाओ में डाला तो ये रचना बन पड़ी थी..... जिसे मै अपने डायरी के पन्नो से निकालकर आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ.....
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मीत बना मै घूम रहा हूँ
साथ लिए वीरानी को,
यादों का अवरोध लगाकर
बस यह आस लगाता हूँ !!
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काश कहीं मिल जाते अपने
मिल जाता फिर उनका साथ,
संग होते सब मित्र हमारे
साथ लिए समृद्धि को,
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मुझे दूरी का हे मित्रो
कष्ट नही कुछ भी होता,
मिलेंगी हमको मंजिल इक दिन
तब साथ रहेगें बन हमसाया !!

9 टिप्‍पणियां:

sandeep sharma ने कहा…

bahut achchhe...

Udan Tashtari ने कहा…

वाह!! आनन्द आ गया गीत पढ़कर.

संजय तिवारी ने कहा…

आपकी लेखन शैली का कायल हूँ. बधाई.

Kulwant Happy ने कहा…

एक शानदार भाव्यों का संगृह आपकी रचना

Hitesh ने कहा…

bahut khub !!!!

निर्मला कपिला ने कहा…

मिलेगी हम को मंजिल इक दिन
तब साथ रहेंगे बन हम साया
बहुत सुन्दर सकारात्मक सोच है । घर से दूर होने का दएद कविता से साफ झाँक रहा है। लेकिन कुछ पाने के लिये कुछ तो खोना ही पडता है फिर ये कुछ दिन का अल्गाव तो कुछ भी नहीं बहुत बहुत आशीर्वाद।

Unknown ने कहा…

its very nice view 4 us(frnds). i agree wt ur openion.

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

काश कहीं मिल जाते अपने
मिल जाता फिर उनका साथ,
संग होते सब मित्र हमारे
साथ लिए समृद्धि को,.
बहुत सुन्दर भावनात्मक रचना--हार्दि बधाई।
पूनम

Unknown ने कहा…

apki kavita me wo amrit hai jo padne wale ka man amar ho jaye